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govindshah2
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Posted - 05 August 2012 : 11:11:54
શ્રીભાગવતજીએ અમુલ્ય ગ્રંથ છે. જેના શ્રવણથી આપણને ભગવાન ઉપર પ્રેમ ઉત્પન્ન થાય છે. ભક્તિનો ઉદય થાય છે. શ્રીમહાપ્રભુ નિત્ય શ્રીભાગવતનું પારાયણ કરતા અને આપશ્રી નિજ-સેવકોને પણ તેનું રસપાન કરાવતા હતા. આપશ્રીના પ્રથમ આત્મજ પૂજ્ય શ્રીગોપીનાથ પ્રભુચરણનો નિયમ બની ગયો હતો કે નિત્ય જ્યાં સુધી એક બેઠકે સંપૂર્ણ શ્રીભાગવતનો પૂર્ણ પાઠ ન કરે ત્યાં સુધી જળ-પણ એવં ભોજન પણ ન કરતા. તેથી શ્રીમહાપ્રભુએ શ્રીભાગવતના સાર સ્વરૂપે શ્રીપુરુષોત્તમસહશ્ર નામ સ્તોત્ર ગ્રંથ પ્રકટ કર્યો.
આપશ્રીના દ્વિતિય આત્મજને પણ શ્રીભાગવત પ્રત્યે અદ્વિતીય લગાવ છે, ખાસ કરીને શ્રીપ્રભુની દશમ સ્કંધમાં પ્રકટ લીલા માટે. શ્રીમહાપ્રભુએ શ્રીગુસાઇજી માંટે ત્રિવિધલીલા નામાવલી નામક ગ્રંથ પ્રગટ કર્યો. શ્રીભાગવત શ્રીપ્રભુનું નામાત્મક સ્વરૂપ છે. આટલું સમજ્યા એટલે વધુ સમજવું કે શ્રીમહાપ્રભુ આજ્ઞા કરે છે કે શ્રીભાગવતનો ક્યારેય પણ કોઈ હેતુ અર્થે કથા, પારાયણ, પઠન કરવું નહિ. વ્યાપારિક હેતુ ક્યારેય પણ સિદ્ધ કરવો નહિ.
શ્રીભાગવતજીના ૧૨ સ્કંધો શ્રીપ્રભુના જુદા જુદા અંગ સમાન છે.
૧ & ૨ સ્કંધ તે શ્રીપ્રભુના બંને શ્રીચરણ છે.
૩ & ૪ સ્કંધ તે શ્રીપ્રભુના બંને બાહુઓ છે.
૫ & ૬ સ્કંધ તે શ્રીપ્રભુના બંને સથાલો છે.
૭ સ્કંધ તે શ્રીપ્રભુનો વામ શ્રીહસ્ત છે.
૮ & ૯ સ્કંધ તે શ્રીપ્રભુના ઉર પ્રદેશ છે.
૧૦મો સ્કંધ તે શ્રીપ્રભુનું હૃદય છે.
૧૧મો સ્કંધમાં શ્રીપ્રભુના શિર સ્વરૂપે છે,
૧૨મો દક્ષીણ શ્રીહસ્ત છે.
આ પ્રકારે જ્યાં શ્રીભાગવતનું પારાયણ થતું હોઈ ત્યાં સાક્ષાત બ્રજ-મંડળ બની જય છે. શ્રીભાગવત વેદરૂપ છે, તે કલ્પવૃક્ષ પણ છે અને મહાપુરાણ પણ કહેવાય છે. શ્રીમદ ભાગવત કલ્પવૃક્ષ છે. જ્યારે તેના બાર સ્કંધ વૃક્ષ છે. તેની કારિકાઓ શાખાઓ છે.
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govindshah2
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Posted - 05 August 2012 : 11:17:26
अभी अपन श्रीभागवतके गहन विषय प्रति विचार करे जो श्रीमहाप्रभु स्वकृत ग्रंथोमें आज्ञा प्रदान करे है.
श्रीमहाप्रभुके सेवक पद्मनाभदास कन्नोजके वासी कनोजिया ब्राहमिन परिवारके, वे प्रथम व्यासासन कु बैठते. अपने घर कन्नोजमें, उचे आसन पर बैठते. एक समे श्रीमहाप्रभु कन्नोज पधारे. पद्मनाभदास ने आपश्रीके दर्शन पाए. श्रीमुखके भगवद वार्ताके प्रसंग सुने. सुनके जानिके साक्षात इश्वर है. श्रीपूर्ण पुरुषोत्तम है. सो पद्मनाभदास श्रीमहाप्रभुके शरण आये. नाम पायके निवेदन-समर्पण पायो. पाचे उत्थापन समे श्रीमहाप्रभु पोथी खोलिके आज्ञा करी :
पठनीयं प्रयन्तेन सर्वहेतुविवर्जितम्।
वृत्यर्थं नैव युज्जीत प्राणैः कण्ठगतैरपि।।
तदभावे यथैव स्यात् तथा निर्वाहमाचरेत्।
त्रयाणां येन केनापि भजन कृष्णमवाप्नु यात्।।
श्रीमहाप्रभुके वचन खूब सुन्दर वचन है. ये अपने जीवनके अमूल्य वचन है. हमे सदैव एक बातको ख्याल रख्नो जरुरी है "पुष्टिमार्गको निस्तार श्रीमहाप्रभुकी वाणी बिना संभव नहीं नहीं और नहीं है."
यदि हम अपने आपको पुष्टिमार्गीय मानते है तो इतनो हमे अवश्य ध्यानमें रखनो चाहिए की हम श्रीमहाप्रभुकी आज्ञा पालन करे. हमारे लिए आधुनिक समज सु अधिक पुष्टिमार्गके पलंके लियें श्रीमहाप्रभुके वचनको ही माननो आव्यश्यक है. आपश्रीही परम सत्य है. श्रीमहाप्रभु आज्ञा करते है की "श्रीभागवतको पाठ प्रयत्नपूर्वक किसीभी अन्य हेतुके बिना ही करना चाहिए. प्रान चाहे कंठमें ही क्यों न अटक जाये, परन्तु आजीविका अर्थ श्रीभागवतका उपयोग नहीं करना चाहिए. श्रीभागवतका आजिविकार्थ उपयोग न करके और जैसे भी अपना निर्वाह चले चला लेना चाहिए."
ये वचन सुनके पद्मनाभ्दासने प्रण लियो श्रीभागवतको वृत्त्यर्थ उपयोग नही करुंगो. पद्मनाभ्दासको तो ये वचन समज आ गए, किन्तु आज हम या वचनकु नहीं समजनो चाहते.
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govindshah2
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Posted - 05 August 2012 : 11:20:31
श्रीभागवतके विषयमें श्रीमहाप्रभु आज्ञा करते है :
विश्वासार्थं पुराणेषु पठितं भतिहेतुकम्। (सर्वनिर्ण्य निबंध:६५)
वेदको साररूप श्रीभागवत है. कोई वादी शंका कर्ता है की जो नारद पंचरात्र इत्यादि वचननके कर्ता नारायण है; नारद प्रसिद्ध कर्ता है, तासो नारद पंचरात्र ग्रन्थ है तैसे श्रीभागवतके कर्ताभी नारायण है, तासो श्रीभागवतकोभी स्वतंत्र ग्रन्थही माननो चाहिए, येही योग्य है. श्रीमहाप्रभु ऐसे तर्ककू नहीं स्वीकारते. आपश्री आज्ञा करते है : स्वतंत्रता होयवेसो नारद पंचरात्रके तुल्य श्रीभागवतभी तंत्रमें गुन्यो जायगो, लोकको (आगम) तंत्रग्रन्थकी अपेक्षा पुराणोंमें अधिक विश्वास है. तासो पुराणनमें ही श्रीभागवतकी गन्ना है. दूसरो करण येह है नारद पंचरात्र उपासना विधायक है. अरु श्रीभागवत भक्ति विधायक है. पुराणनमें गंनको तृतीय हेतु यह है की श्रीभागवतमें सर्ग-विसर्गादी दश प्रकारकी लीलाको प्रतिपादन है, यदि दास प्रकारकी लीला सर्गादीलीलाको वर्णन नहीं होय तो सुनवेवारेको कर्मक्षय नहीं होय. कर्म नाश बिना मोक्षभी नहीं होय. तासो दशविधलीला पुरंको लक्षण है. सो श्रीभागवतमें मिले है. तासो याको पूरणमें प्रवेश है.....
अत्यन्तमलिना लोकास्ततो भागवतम् कृतं।
एतदभ्यसनाल्लोको मुच्यते अनुपजीवनात्।। ६७ ।।
मर्यादाशास्त्रकी अपेक्षा श्रीभागवतमें यह अधिकाई है की वेदके अर्थको अनुष्ठान करेसो वेद फल देसके है. परन्तु वेदकी ये सामर्थ्य नहीं है की आचारहीन मनुष्यनसो अपनों अनुष्ठान करवायके फल देसके. तासो "आचारहीनं न पुनन्ति वेदा:" इत्यादि वाक्यंसो आचारहीन होयवेसो अत्यंतमलिन जो मनुष्य है वे वेदके अधिकारी नहीं है. उनकू मुक्त करवेमे वेद कुंठित अर्थात समर्थ नहीं है ये दोष श्रीभागवतमें नहीं है. क्योकि येह तो सबके उद्धार करवेके लिए प्रकट है. अर्थको अनुष्ठान नहीं होय सकेतो श्रीभागवत पढवे-सुनवेको अभ्यास मात्रसोभी लोक मुक्त होय जावे है, क्योकि "यस्यां वै श्रूयमाणायां" (श्रीभागवत १.७.७) अरु "शुश्रुषुभीस्तत्क्षणात" (श्रीभागवत १.१.२) इत्यादि श्रीभागवतके ही वचननमें श्रवण करके भगवानकी तथा भक्तिकी प्राप्ति लिखे है. परन्तु यामेंभी एक दोष है : या (श्रीभागवत) करके जीविका करनो. तासो जो पुरुष श्रीभागवत करके मुक्त होनो चाहे वाकू श्रीभाग्वातको जीविकाके लिए उपयोग नहीं करनो चाहिए.
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govindshah2
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Posted - 05 August 2012 : 11:22:48
श्रीभागवतको अत्यंत महत्त्व है अपने सनातन धर्म अनुयायिके लिए. ताको विशेष वर्णन श्रीमहाप्रभु स्वकृत निबंधके सर्वनिर्णय प्रकरणमें आवे है.
विशिष्टे वाचकं गीता श्रीभागवतमेव।..९०
उन क्रिया-ज्ञान विशिष्ट श्रीकृष्णचन्द्रको वर्णन करवेवारे गीता-भागवत है. और केवल क्रियावान यज्ञात्मक विष्णुको वर्णन करवेवारो वेदको पुर्वकांड है.
श्रीमहाप्रभु और हु वर्णन करते है.
साधनं परमेतद्धि श्रीभागवतमादरात्|
पठनीयं प्रयत्नेन निर्हेतुकम् अदम्भतः॥ (२४३)
तब व्यासजीने श्रीभागवतपुराण प्रकट किया जिसके अभ्यास (श्रवण-स्मरण-कीर्तन)से लोग मुक्त हो सकते हैं, बशर्ते श्रीभागवतका आजीविकार्थ उपजीवन न किया जाय, यह श्रीमद्भागवत एक श्रेष्ठ साधन है. अतः प्रयत्नपूर्वक, किसी लौकिक हेतु या दम्भ के बिना, आदरके साथ इसका पठन करना चाहिये.
श्रीमहाप्रभुने सर्वनिर्णय निबंधको समापन और श्रीभागवतार्थ निबंधको प्रारम्भ. सो जो समापन है, वापर हमे श्रीमहाप्रभु श्रीभागवत प्रति हमे आश्रित करे है. कैसे :
प्रेम्णा अन्यत् साधनं लोके नास्ति मुख्यं परं महत्।
श्रीभागवतमेवात्र परं तस्य हि साधनम् ।। ३२६
अधिकारं अभिप्रायं ज्ञात्वा भक्तमुखेन हि।
सकृत् श्रवनमात्रेन कृष्णे प्रेम भवेद् ध्रुवम् ।। ३२७
विरक्तो विपरीतादिभावनारहित: सुह्यत् ।
लीलामात्रश्रुतौ तस्य भवेत् प्रेम अखिले किमु।। ३२८
श्रीभागवततत्त्वार्थं अतो वक्ष्ये सुनिस्चितम् ।
यज्ज्ञानात् परमा प्रीति: कृष्णं शीघ्रं फलिष्यति।।३२९
श्रीमहाप्रभु श्रीभागवत प्रति खूब आदर-सत्कार रखे है. या लिए श्रीभागवतको उत्कर्ष हरि प्रकार सो वर्णन कियो है. उपरोक्त प्रकार सब पदार्थको निरूपण करके भातिमार्ग्को उपसंहार करे है "प्रेम्णान्यद" इति. लोकमे प्रेमसो बड़ो मुख्य और साधन नहीं है. मनकी रूचि करके भयो प्रेम दोष देखिवेसो निवृत्त हो हवे है. भगवानके विषयमें शास्त्र सुने पढ़े बिना लोकदृष्टिसों दोशंकी संभावना होवे है, तासो वा दोषदृष्टि मिटवेके लिए शास्त्रको श्रवण-पठान करनो. तहा सर्व शास्त्रनको निर्धार कर्वेवारो, श्रीभगवानके सर्व माहात्म्यको जतायवेवारो प्रेमको प्रकट करिवे वारो श्रीमद्भागवत शास्त्र है. "यस्यां वै श्रूयमाणायां" (श्रीभागवत १.७.७), "लोकस्याजानताविद्वान" (श्रीभागवत १.७.6) इत्यादि वाक्यंमें श्रीभागवत श्रवणसो भक्ति उत्पन्न होनो स्पष्ट लिख्यो है. ३२६.
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govindshah2
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Posted - 05 August 2012 : 11:26:49
अभी लोकमें श्रीभागवत सूनवेवारेनके हृदयमें प्रेम प्रकट होतो नहीं देखिके श्रीभागवत श्रवण प्रेमको साधन नहीं है - ऐसी शंका होय ताको उत्तर देते भये श्रीभागवत श्रवणकी विशेष रीती दिखावे है "अधिकारं" इति. ३२७
श्रीभागवत सुनवेके तिन अंग है :
१. श्रीभागवतके तात्पर्यको आछी रीतिसो ज्ञान होनो चाहिए,
२. भक्त-मुखसो श्रवण होनो चाहिए, अरु
३. सूनवे वरेके ह्रदयमें वैराग्य होनो चाहिए.
जब या तीनन अंगकी एक-वक्यता सिद्द होवे, तभी श्रीभागवत फल देवे है. नान्यथा.
पूर्वोक्त अधिकारीसोभी उत्तम अधिकारिकू तो श्रीभागवतके एकदेश के सुनवेसोही भक्त होई जावे है. लोकनमें सर्वथा जो विरक्त होय, असम्भावना-विपरीतभावना करके रहित होय, सर्व जगतको सुहृदय होय. तिर्थादिक सेवनसो शुद्ध जाको अन्त:करण होय, जैसे विदुर तुल्य हो अथवा वसो अधिक उद्धव तुल्य होय वैसे भक्तकू लीला मत्रके श्रवण करके भक्ति उत्पन्न होयवेमें कोई संदेह नहीं है. ३२८
तहा आपको कहा उपयोग है? या शंकाको उत्तर देत है. तहा श्रीभागवतको अर्थ नहीं जनिवे सो अथवा विपरीत अर्थ जनिवेसो अधिकार होय तथापि श्रवणसोभी भक्त नहीं होय. तासो श्रीभागवतके तत्त्वार्थको विवेचन तीसरे भागवतरूप प्रकरणमें कियो जायगो.
जाके जानवेसो सर्वथा भक्ति उत्पन्न होय फिर उत्पन्न भई भक्ति वैसी ही स्थिर नहीं रहे किन्तु प्रतिदिन बढती भई शीघ्र ही श्रीकृष्णरूप फलकू प्राप्त करदे है. तासो भक्तिकी इच्छा होय तो सर्वथा श्रीभागवतरूप प्रकरणको सर्वदा अनुसन्धान करते रहनो योग्य है.
अब अपनकू विचार करनो क्या अपन आजकल जो कथाकार पैसा लेके कथा करे है, या कोई हेतु सु श्रीभागवतको परायण करे है, क्या हमे उनके मुखसु सुननो चाहिए????स्वयं निर्णय करे....यदि हम अपने आपको पुष्टिमार्गीय वैष्णव समजते है तब हमे तो श्रीमहाप्रभुके उक्त वचननको माननो कर्तव्य है.......
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pranavkg
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Posted - 13 August 2012 : 00:02:09
Very True. Shree Mahaprabhuji's viewpoint on Shreemad Bhagawadji is that Shreemad Bhagawadji is Shree Thakorji Himself. Unfortunately, there are people who don't care about Shree Mahaprabhuji's amrutvachan and as a result Bhagawad Katha is sold everyday everywhere. It hurts more when we see this kind of activity in our own sampradaya and people who are supporting or acting being ignorant are also equally responsible. I don't know about other sampradayas but would like to see at least Pushtimarga Sampradaya out of this. .............. Shree Mahaprabhuji's vachan are that Shreemad Bhagwadji is Shree Thakorji Himself and by studying Shreemad Bhagwadji everyday and not just 7 days of a year you can worship Shreemad Bhagwadji.
PKG
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govindshah2
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Posted - 01 September 2012 : 12:10:49
ShriMahaprabhu's view regarding ShriBhaagwat Adhyayan is much clear. Aapshri gives positive orders that one should daily do avgaahan of ShriBhagwat at one's own house......Bhakt Mukhaat Shravanaat, Nirhetuk, and Vairagya bhaav should prevail in the hearts of the Reader, Listener......Its a daily process...
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