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27 Posts
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Posted - 25 December 2014 : 22:59:59
Haveli, loti utsav, kathakkad Bhagvat saptah?? Badhu apana pathne, rastane bhulavnaru nathi??
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govindshah2
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Posted - 01 January 2015 : 11:10:41
None of the points u said....
Only way is Shrimahaprabhu's Vaani.
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Ankur
Entry Level Member
12 Posts
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Posted - 06 January 2015 : 18:07:30
Not at all vaishnav...!
Jay Shri Vallabh.
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govindshah2
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Posted - 07 January 2015 : 10:46:52
Ankurji....do explain ur point in details....
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govindshah2
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Posted - 07 January 2015 : 10:49:36
सेवाप्रदर्शन
(क)
भगवद्भावस्य रसात्मकत्वेन गुप्तस्यैव अभिवृद्धिस्वभावकत्वाद् आश्रमधर्मैरेव लोके स्वं भगवद्भावम् अनाविष्कुर्वन् भजेत् इत्येतदाशयेन ते धर्मा उक्ताः. गोपने मुख्यं हेतुम् आह ‘अन्वयाद्’ इति. यतो भगवता समम् अन्वयं=सम्बन्धं प्राप्य वर्तते, अतो हेतोः तथा. अत्र ‘‘ल्यब्लोपे पञ्चमी’’ एतेन यावद् अन्तःकरणे साक्षात् प्रभो प्राकट्यं नास्ति, तावदेव बहिराविष्करणं भवति, प्राकट्ये तु न तथा सम्भवति इति ज्ञापितम्.
(अणुभाष्य.३|४|४९).
(हिन्दीभाषा-भावानुवादः)
(क)भगवद्भावके रसात्मक होनेके कारण वह गुप्त रहता है तभी वृद्धिंगत हो सकता है. अतः लोकमें आश्रमधर्मोकी ओटमें अपने भगवद्भावको छिपाये रखना चाहिये. इसी आशयसे भगवद्भावके साथ-साथ आश्रमधर्मोका भी निरूपण किया गया है. जिसके हृदयमें भगवान बिराजते नहीं है वही व्यक्ति अपने भावोंको जनतामें प्रदर्शित कर सकता है. प्रभु यदि हृदयमें बिराजते अनुभूत हों तो भावोंका बाहर आविष्करण=प्रदर्शन सम्भव नहीं है (अणुभाष्य ३|४|४९).
(ख)
स्वीयान् भक्तान् प्रदर्शयेत्.
(साधनदीपिका.१०८)
(हिन्दीभाषा-भावानुवादः)
(ख)जो अपने स्वजन हों और भक्त हों ऐसौंको ही श्रीठाकुरजीके दर्शन कराने चाहिये (साधनदीपिका.१०८)
(ग)
३८तमो अपराधः=गुरु-देवतयोः गुप्तप्रकटीकरणम्. फलं=श्वानयोनित्रयम्.
११अपराधः=अवैष्णवस्य स्वसेव्यप्रदर्शनम्. फलं=वार्षिकसेवा-निष्फलत्वम्. प्रायश्चित्तं=पञ्चामृतस्नानम्.
३६तमो अपराधः=भगवन्नाम्ना याचनम्. फलम्=उपचारनैष्फलम् प्रायश्चित्तं=पञ्चगुणित-नैवैद्य-दानम्.
३५तमो अपराधः=गुर्वाज्ञोल्लङ्घनम्. फलम्=असिपत्रादि-घोर-नरक-पातः. प्रायश्चितम्=वैष्णव-गुरु-प्रसादनम्.
(श्रीहरिरायजी-विरचित-षट्पष्ठिरपराधस्तत्फलानि-प्रायश्चित्तानि-च).
(हिन्दीभाषा-भावानुवादः)
(ग)३८वां अपराध:गुरु या दैवत(=श्रीठाकुरजी सम्बन्धी बातों)के गुप्त-रहस्य-को प्रकट करना. फल:तीन जन्मों तक श्वानयोनि.
११वां अपराध:अवैष्णवके समक्ष अपने घरमें बिराजते श्रीठाकुरजीका प्रदर्शन करना. फल:एक वर्षकी सेवा निष्फल हो जाती है. प्रायश्चित:श्रीठाकुरजीको पंचामृतसे स्नान कराना.
३६वां अपराध:श्रीठाकुरजी (या श्रीभागवतजी या श्रीयमुनाजी) के नामसे (‘भेट’, ‘सामग्री’, ‘पोथीसेवा’ या ‘न्योछावर’) मांगना. फल:सेवा सर्वथा निष्फल हो जाती है. प्रायश्चित:जितना मांगा या बटोरा हो उससे पांचगुने नैवेद्यका प्रभुको दान (नहीं कि समर्पण) करना.
३५वां अपराध:गुरु-श्रीमहाप्रभु आदि-की आज्ञाका उल्लंघन करना. फल:असिपत्रादि नामोंवाले घोर नरकोंमें पतन. प्रायश्चित:वैष्णव और गुरु को प्रसन्न करना (श्रीहरि.वि.षट्.).
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govindshah2
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Posted - 07 January 2015 : 10:50:36
लौकार्थी चेद् भजेत् कृष्णं क्लिष्टो भवति सर्वथा|
(सि.मु.१६).
ननु कश्चिद् जीविकाद्यर्थमपि भजते तस्य का गतिः? इत्यत आहुः ‘लोकार्थी’ इति. ‘लोक’पदेन लौकिको अर्थः उच्यते. तदर्थी चेत् कृष्णं भजेत् तदा व्यापारवद् अर्थे सिद्धे तस्यापि अनर्थरूपत्वेन तत्कृतभजनस्य भक्तित्वाभावात् तत्कृतं सर्वं क्लेशरूपमेव, अतः क्लिष्टो भवति इति अर्थः. न केवलम् ऐहिकः क्लेशः किन्तु परलोकोपि नश्यति निषिद्धाचरणादिति ‘सर्वथा’ इति उक्तम्. यस्य स्वल्पमपि ज्ञानं स नैवं करोति; सर्वथा तद्रहितः कश्चिद् एवं कुर्यादपि इति ‘चेद्’ इति उक्तम्.
(श्रीप्रभुचरणविरचित-सि.मु.विवृत्ति.१६).
(हिन्दीभाषा-भावानुवादः)
(ख)यदि कोई लोकार्थी होकर कृष्णका भजन करता है तो वह सर्वथा क्लेश ही पाता है.(सि.मु.१६).
कोई आजीविका कमाने या यशआदि पानेके लिये भी भजन करता हो तो उसकी क्या गति होगी? ऐसी जिज्ञासाके समाधानरूपेण श्रीमहाप्रभु ‘लोकार्थी’की चर्चा कर रहे है. ‘लोक’का मतलब है लौकिक धनादि. ऐसी लौकिक कामना रखनेवाला यदि कृष्णका भजन करता हो तब जैसे घंघा करने पर धनादि प्राप्त होता है वैसे धन तो कमाया जा सकता है. भजनद्वारा, परन्तु, उपार्जित धन तो स्वयं अनर्थरूप होता है. अतः एसे लौकार्थीके द्वारा किया गया भजन तो भक्ति ही न होनेके कारण उसके द्वारा किया गया सब कुछ (पारिवारिक-सामाजिक-सांप्रदायिक) क्लेशरूप ही होता है. इसलिये वह व्यक्ति भी क्लेश ही पाता है. ऐसा श्रीमहाप्रभुके वचनका साफसाफ अर्थ है. न केवल उसे ऐहिक(पारिवारिक-सामाजिक-सांप्रदायिक)क्लेश ही होता है प्रत्युत उसके सारे पारलौकिक अधिकार एवं फल भी नष्ट हो जाते हैं, ऐसे निषिद्धाचरणके कारण, यह स्पष्ट करनेके लिये श्रीमहाप्रभुने ‘सर्वथा’पदका प्रयोग किया है. जिसे (शास्त्र-मार्ग-परम्परा-भगवत्स्वरूप-भक्तिभाव-नीतिका) अत्यल्पभी ज्ञान हो वह तो ऐसा कुकृत्य नहीं कर सकता है. फिर भी जो इस ज्ञान या संस्कार से सर्वथा ही रहित हो वह ऐसा कुकृत्य कदाचित् कभी कर सकता है. ऐसी संभावनाको देखते हुए श्रीमहाप्रभुने ‘चेद्’पदका प्रयोग किया है.(श्रीप्रभु.वि.सि.मु.वि.१६).
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govindshah2
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Posted - 07 January 2015 : 10:50:39
सेवास्थल
(क)
बीजदार्ढ्यप्रकारस्तु गृहे स्थित्वा स्वधर्मतः...भजेत् कृष्णम्...
(भक्तिवर्धिनी.२).
‘तु’शब्देन एतदतिरिक्तप्रकारान्तरव्युदासः उक्तः स्वमार्गीयभगवद्भजनं तु गृहस्थित्यभावे न संभवतीति पूर्वं गृहस्थितिमेव आहुः ‘गृहे स्थित्वा’ इति. भगवद्भजनानुकूले गृहे स्थित्वा स्वधर्मतः कृष्णं भजेत्.
(श्रीगोकुलनाथजीकृतविवृति.२)
अत्र गृहस्थान-विधानेन स्वगृहाधिष्ठित-स्वरूप-भजन-परित्यागेन अन्यत्र तत्करणे भक्तिः न भवति इति सूचितं भवति.
(श्रीवल्लभात्मज-श्रीबालकृष्णजीकृतविवृत्ति.२)
(हिन्दीभाषा-भावानुवादः)
(क)‘‘पुष्टिभक्तिके बीजभावको दृढ करनेका प्रकार तो बस घरमें रहकर स्वधर्मतः...कृष्णको भजना है.(भक्तिवर्धिनी.२).
यहां ‘तो’शब्दके प्रयोगसे यह ध्वनित होता है कि इस श्लोकमें अभिप्रेत भजनके प्रकारसे अतिरिक्त भजनका अन्य कोई भी प्रकार सिद्धान्ताभिमत नहीं है. स्वमार्गीय भगवद्भजन घरमें रहे बिना संभव न होनेसे सर्वप्रथम गृहस्थितिका ही निरूपण श्रीमहाप्रभु करते हैं ‘‘घरमें रहकर’’ विधान द्वारा. भगवद्भजनानुकूल घरमें रह कर कृष्णको भजना चाहिये (श्रीगो.वि.२).
यहां सेवोपयोगी स्थानके रूपमें घरका विधान किया गया है अतः यदि अपने घरमें बिराजते प्रभुका भजन छोड़ कर और कहीं भजन (भेटसामग्री, मनोरथ या झांखी के रूपमें) किया जाता है तो उसे ‘भक्ति’ नहीं कहा जा सकता है.(श्रीवल्ल.बाल.वि.२)
(ख)
गूढलीलापरो भक्तगूढभावरसात्मकः|
सेवनीयः सावधानैः विपरीतगतिक्रियः॥
श्रीमदाचार्यकृपया तिष्ठति स्वगृहे हरिः|
एवंविधः सदा हस्ते योगिनः पारदो यथा॥
(शिक्षापत्रम्.२|१८-१९).
(हिन्दीभाषा-भावानुवादः)
(ख)गूढलीलापरायण भक्तके गूढभावानुसारी विपरीत-गति-क्रिया-वाली लीला करनेवाले श्रीहरिकी सेवा सावधान हो कर करनी चाहिये. श्रीमदाचार्यचरणकी कृपासे प्रभु अपने घरमें बिराजते हैं. इस तरह कि जैसे योगीके हाथमें पाराकी गुटिका (शिक्षा.२|१८-१९).
(ग)
गृहे स्थित्वा सेवनार्थं स्वधर्मेणैव सर्वथा|
कृष्णं भजेत् यतोऽधर्मकरणात् हीनयोनिता॥
कृष्णमूर्तौ यथालब्धैः द्रव्यैः संपूजयेद् हरिम्|
पूर्वं स्थानं मन्दिरादि तथा सिंहासनादि च॥
(श्रीहरिरायजीकृत-स्व.श.स.से.निरूपणम्.४५-४६).
(हिन्दीभाषा-भावानुवादः)
(ग)घरमें रह कर सेवा जो करनी है वह सर्वथा स्वधर्मानुसार ही कृष्णभजनके रूपमें करनी है, क्योंकि अधर्म करनेपर हीनयोनिमें जन्म मिल सकता है. यथालब्ध द्रव्योंसे हरिका पूजन उनकी मूर्तिके रूपमें करना चाहिये. हरिपूजनसे भी पहले श्रीहरिके बिराजनेके स्थान-मंदिरादि और सिंहासनादि-का भी अलंकरणात्मक पूजन करना चाहिये (श्रीहरि.स्व.श.स.से.नि.४५-४६).
(घ)
‘आचार्यकुलाद्’ इति श्रुत्युक्तरीत्या गृहएव स्थित्वा भगवद्भजनं कर्तव्यं स्वधर्मरहस्यं च गोपनीयम् इति सिद्धम्.
(श्रीपुरुषोत्तमजीकृत-अणुभाष्यप्रकाश.३|४|५०).
(हिन्दीभाषा-भावानुवादः)
(घ)‘‘आचार्यकुलाद्’’ इस श्रुतिमें कही गई रीतिके अनुसार घरही में रह कर भगवद्भजन करना चाहिये और अपने धर्मके रहस्यको गुप्त रखना चाहिये (अणुभा.प्र.३|४|५०).
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govindshah2
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Posted - 07 January 2015 : 10:51:34
view this....
points of shrimahaprabhu's vachan.....granths....
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